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गुरुवार, 5 मई 2022

प्राचीन झारखण्ड का परिचय

  BGN ACADEMY       गुरुवार, 5 मई 2022

 

-: झारखण्ड  का परिचय:-



प्राचीन झारखण्ड  का परिचय

झारखण्ड के मध्यकाल में क्षेत्रीय राजवंशों के अधीन था। आरंभ में उभनेवाले राजवंशों में प्रमुख थे- छोटानागपुर खास को नाग वंश, पलामू का रक्लेस वंश तथा सिंहभूम का सिंह वंश। बाद में उभरने वाले राजवंशों/राज्यों में प्रमुख थे- मानभूम का मान वंश, रामगढ़ राज्य, खड़गडीहा राज्य, पंचेत राज्य, ढालभूम का ढाल वंश एवं पलामू का चेरो वंश। क्षेत्रीय राजवंशों में छोटानागपुर खास का नाग वंश सबसे दीर्घकालिक साबित हुआ। सल्तनत काल (1206-1526) में दिल्ली के  सुल्तान अपने लगभग 300 वर्षों के शासन काल में इस क्षेत्र को कभी भी पूरी तरह आक्रांत नहीं करे सके। सल्तनत काल में झारखण्ड पर छिट-पुट ही बाहरी आक्रमण हुए; जैसे-वीरभूमि के राजा द्वारा सिंहभूम पर, मुहम्मद-बिन-तुगलक के सेनापति मलिक बया द्वारा हजारीबाग पर तथा उड़ीसा के शासक कपिलेन्द्र गजपति द्वारा संथाल परगना पर। एक गाथा के अनुसार, उड़ीसा के राजा जयसिंह देव ने 13वीं सदी में स्वयं कोझारखण्ड का शासक घोषित किया। इसी तरह खानदेश के शासक आदिलशाह प्प् ने अपने सैन्य दल को झारखण्ड तक भेजा औरझारखण्डी सुल्तानकी पदवी धारण की। किन्तु इन सबका कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ा और झारखण्ड की स्वतंत्र सत्ता बनी रहीं। मुगल काल (1526-1707) में तीसरे मुगल बादशाह अकबर के शासन काल के तीसवें वर्ष में मुगल साम्राज्य एवं झारखण्ड के बीच वास्तविक सम्पर्क स्थापित हुआ। तब से झारखण्ड के क्षेत्रीय राजवंश बिहार-उड़ीसा के मुगल सूबेदारों को कर देने लगे। हालांकि यह कर अदायगी बहुत ही अनियमित थी। दबाव बढने पर क्षेत्रीय रावंश सालाना कर दे देते थे और आगे देते रहने की हामी भी भर लेते थे लेकिन जैसे ही दबाव घट जाता था वे कर देना बंद कर देते थे। उत्तर मुगल काल में मुगल बादशाहों और उनके सूबेदारों की झारखण्ड पर पकड़ कमजोर पड़ गई। इसी काल में झारखण्ड के लिए नया खतरा मराठों के रूप में आया। मराठा आक्रमणों का सिलसिला 1741 0 से शुरू होकर 1803 0 तक चला। यह खतरा बड़ा रूप लेता उससे पहले ही अंग्रेज हावी हो गए। उधर झारखण्ड के क्षेत्रीय राजवंशों की शक्ति इतनी क्षीण पड़ गई कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी नेआसानी से इस क्षेत्र को कब्जे में ले लिया।

झारखण्ड में अंग्रेजों के प्रवेश की प्रक्रिया 70 वर्षां में (1767-1837) में पूरी हुई। अंग्रेजों एवं उनके सहयोगियों जिनमें अधिकरी-कर्मचारी, जमींदार, ठेकेदार, महाजन आदि शामिल थे के झाखण्ड प्रवेश की जनजातियों मंे तीव्र प्रतिक्रिया हुई क्योंकि इन सबने जनजातियों के बंद जीवन में उथल-पुथल मचा दी थी और सब कुछ उलट-पुलट कर रख दिया था। इसी कारण झारखण्ड में निरंतर जनजातीय विद्रोह/आंदो लन होते रहे जिनमें सर्वप्रमुख थेः- संथाल हुल/संथाल विद्रोह (1855-56 0) एवं मुण्डा उलगुलान/बिरसा का आंदोलन (1899-1900 0) 1857 के विद्रोह में झारखण्ड के लोगों ने महत्वपूर्ण भागीदारी की। 1885 में कांग्रेस की स्थापना के बाद लोग राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने के लिए महात्मा गाँधी के नेतृत्व में एकजुट हुए। असहयोग आंदोलन, सविनय, अवज्ञा आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन में झारखण्ड के लोगों ने सक्रिय भूमिका निभाई। 1947 में भारत स्वतंत्र हो गया। झारखण्ड, बिहार का भाग बना रहा औरदक्षिण बिहारके नाम से जाना गया।

झारखण्ड राज्य निर्माण आंदोलन का बीजारोपण 20वीं सदी के आरंभिक दशक मंे हुआ। इस आंदोलन का नेतृत्व छोटानागपुर उन्नति समाज, छोटानागपुर-संथाल परगना आदिवासी सभा (आदिवासी महासभा), झारखण्ड पार्टी आदि ने किया। 1963 से 1973 तक का समय झारखण्ड आंदोलन के बिखराव एवं ठहराव का दौर था। 20वीं सदी के अंतिम चतुर्थाश में झारखण्ड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) ने  नियमित आंदोलन किया, जिसके फलस्वरूप बिहार सरकार ने 1995 0 में झारखण्ड क्षेत्र स्वायत्तशासी परिषद्/जैक की स्थापना की। 15 नवम्बर, 2000 0 को झारखण्ड, भारत संघ के 28 राज्य के रूप में , अस्त्वि में अया। राँची को इसकी राजधानी बनाया गया।

झारखण्ड राज्य प्राकृतिक दृष्टि में:-  झारखण्ड राज्य प्राकृतिक दृष्टि से दो मुख्य भागों में विभक्त हैं। छोटानागपुर और संथाल परगना। झारखण्ड एक आदिवासी बहुल राज्य है। झारखण्ड के रूप में आदिवासियों की गृहभूमि/स्वेछया (भ्व्डम्स्।छक्) - जो आदिवासियों का सदियों पुराना सपना था, साकार हुआ है। झारखण्ड में मुख्य रूप से छोटानागपुर पठार औा संथाल परगना के वन-क्षेत्र शामिल हैं, यह भाग पहाड़ों और जंगलों से भरा है। पहाड़ों में अनेक सुन्दर झरने और जनप्रपात हैं। इसकी उत्तरी और पूर्वी हिस्सा कम ऊँचा है। बाकी हिस्से की ऊँचाई अधिक है। इसकी औसत ऊँचाई प्रायः 600 मीटर है। हजारीबाग तथा गिरिडीह जिलों में बहुत-सी ऐसी पहाड़ियाँ हैं जो 600 से 1400 मीटर तक ऊँची हैं। यहाँ कीपारसनाथपहाड़ी झारखण्ड में सबसे ऊँची पहाड़ी मानी जाती है।  यहाँ गर्म जल के अनेक झरने हैं। राँची जिला में सबसे ऊँचे पहाड़ की ऊँचाई 1200 मीटर है। झारखण्ड जिले की हुंडू-जलप्रपात झारखण्ड का सबसे बड़ा और प्रसिद्ध जलप्रपात है। जो 100 मीटर की ऊँचाई से गिरता है। पलामू जिले की नेतरहाट की चोटी 1200 मीटर ऊँची हैं। धनबाद जिला बुंदा और सिंहभूम में दलमा की पहाड़ी सबसे ऊँची है। झारखण्ड में अनाज की अधिक उपज नहीं हैं और यहँ की आबादी भी बहुत कम हैं, लेकिन झारखण्ड में बहुत तरह के खनिज पदार्थ तथा जंगली चीजें पायी जाती हैं। झारखण्ड में बहनेवाली मुख्य नदियाँ उत्तर-कोयल, दक्षिण-कोयल, सुवर्णरेखा, दामोदर, बराकर, शंख, अमानत और कंसाई हैं। कनहर पलामू एंव गढ़वा जिलों की दक्षिण-पश्चिमी सीमा पर बहती हैं। उत्तर ओर दक्षिण करो, रोरो, देव और कोइना सिंहभूम जिला की छोटी-छोटी नदियाँ है। धलकिशोर धनबाद जिला में बहती है। सकरी, मोहनी और नीलांजन हजारीबाग एवं गिरिडीह जिला में बहती है। संथाल परगना की नदियों में गंगा, गुमानी बंसलोई ब्राह्मणी, अजय तथा मोर प्रमुख हैं।  विंध्य कैमूर की पर्वत श्रेणियों ने झारखण्ड को उत्तर से होने वाले आक्रमणों से सदैव सुरक्षा प्रदान की। वस्तुतः प्राचीन काल में गुप्त शासाकों एवं गौड़ शासक शशांक को छोड़कर किसी राजवंश ने इस क्षेत्र पर अधिक समय तक शासन नहीं किया।

झारखण्ड के पशु:-  झरखण्ड के पशु प्रायः कमजोर और कद के नाटे होते हैं अतः यहाँ बैल के अलावा भैंसा भी काफी तादाद में हल में जोते जाते हैं। राँची जिले में आदिम जाति के लोग कभी-कभी गाया को भी हल में जोतते हैं। ये लोग, खासकर मुण्डा जाति के लोग, दूध के लिये गाय प्रायः नहीं पालते, उनका कहना है कि दूध गाय के बच्चे के लिए हैं। हजारीबाग और राँची के स्थानीय लोगों में भैंस पालने और उसकनी नस्ल बढ़ाने की चाल नहीं हैं। यहाँ लोग भैंसा कम जोतते हैं, पालतू जानवरों में हाथी, घोड़ा, कबरी, भेड़, गधा तथा सूअर आदि हैं। यहाँ बाघ, चीते, भालू, भेड़िये, सूअर आदि काफी तादाद में पाये जाते हैं। हर वर्ष सैकड़ों पशु और आदमी इनके शिकार होते हैं। इन जंगली जानवरों की संख्यों में काफी कमी आने लगी हैं।

आवास-प्रवास:- रखण्ड एक पिछड़ा हुआ भू-भाग होने के कारण प्रवासियों के एक जवरद्स्त अड्डा बन गया ओर ये लोग यहाँ की जमीन, खान, उद्योग-धंधे, व्यापार और यहाँ की नौकरियों में काफी दखल जमाये हुए हैं। ऐसे लोगों में बिहार, बंगाल तथा पंजाब से आये लोगों की संख्या अधिक है। ये लोग अधिकतर छोटी-छोटी नौकरियाँ अथवा व्यापार करते हैं।

जीवनकाल:- झारखंडियों के जीवनकाल देश के अन्य उन्नतिशील भागों की अपेक्षा यहाँ के लोग बहुत कम उम्र तक जीते हैं, पिछली जनगणना के अनुसार झारखण्ड में 60 वर्ष से ऊपर के आदमी हजार में 60 थें बाल-मृत्यु भी देश के अन्य भागों की अपेक्षा यहाँ अधिक है। ज्यादा हिफाजत करने पर भी लड़कियाँ की अपेक्षा लड़को की मृत्यु अधिक होती है।

धर्म जातियाँ :- झारखण्ड में हिन्दुओं की संख्या अधिक है ओर मुसलमानों की कम, यहाँ ईसाई धर्म प्रचारकों का अड्डा होने के कारण ईसाई संख्या बड़ी है। सिक्खों, बौद्धों तथा जैनियों की संख्या मामूली है। हिन्दू की प्रमूख जातियों में ब्राह्मण सर्वाधिक हैं। इसके पश्चात् राजपूत, कोयरी, दुसाध, ग्वाला, चमार, तेली तथा भूमिहार ब्राह्मण आदि हैं। छः में एक आदमी यहाँ हरिजन हैं।

झारखण्ड आदिम जाति बहुल क्षेत्र है। मुंडा और द्राविड़, इनकी दो मुख्य श्रेणियाँ हैं। इन दो श्रेणियों की 21 मुख्य जातियाँः- संथाल, मुण्डा, ओराँव, भुइयाँ, हो, भूमिज, खरिया, खरवार, चेरो, कोरवा, करमाली, बिरहोर, असुर, बिरजिया और सबर इत्यादि हैं, इन जाजियों में अधिकांश लोग अपने को हिन्दू बताते हैं। शेष अपने को ईसाई और सरना धर्म को मानने वाले हैं।

खेती और पेदावार:-  झारखण्ड जंगलो और पहाड़ो से भरा है। यहाँ की जमीन का सिर्फ एक-चैथाई भाग जोता-बोया जात है झारखण्ड खेती के लिये नहीं, पर खनिज-पदार्थ के लिये प्रसिद्ध हैं।

फसल मुख्यतः तीन प्रकार की होती है - भदई, अगहनी और रबी। सबसे मुख्य फसल रबी है रबी फसल में मुख्य गेहूँ, जौ, चना, अरहर, तीसी, भदई में धान, मकई, मडुआ आदि, अगहनी में मुख्य धान है। यहाँ दो-तीन फसलवाली जमीन बहुत ही कम है। यहाँ जोत के अन्दर आयी हुई जमीन में बहुत-सी जमीन ऐसी है जो दो साल, तीन साल और चार साल परती रहने के बाद बोने के काबिल होती हैं। यहाँ गेहूँ की खेती कम ओर मडुआ की खेती बहुत होती है। धनबाद और हजारीबाग जिलों में बाजरा उपजाया जाता है। तेलहन में तीसी, तिल और सुरगुजा मुख हैं। रूई की खेती दुमका, राँची, धनबाद, हजारीबाग तथा पलामू जिलों मंे होती है। आदिम जाति के लोग अपने यहाँ की रूई से बने कपड़े अधिक पसन्द करते हैं। मसाले की खेती पलामू में होती है। मसाले में सबसे अधिक मिर्च होती है। चाय की उपज राँची जिले में होती है। झारखण्ड में सिचांई की व्यवस्था लगभग नहीं के बराबर है, धनबाद, पलामू और सिंहभूम जिलों में थोड़ी-बहुत सिंचाई का इन्तजाम हैं।

झारखण्ड में खनिज पदार्थ:-  लोहा तथा कोयला आदि खनिज पदार्थ काफी तौर से पाये जाने के कारण उद्योग-धंधे के बढ़ने में काफी सुविधा हुई। इंजीनियरिंग, लाह, बिजली, सिमेंट, लोहा, अबरख, ताम्बा आदि से संबद्ध अनेक कारखाने हैं। लाह उद्योग में हजारों लोग हैं, सिंहभूम तसर-व्यापार का केन्द्र है, टाटा आयरन ओर स्टील कम्पनी की स्थापना 1907 में  हुई थी। अब तो बोकारो में भी लोहा और इस्पात के बहुत बड़ा कारखाना खुल गया है। कत्था हजारीबाग और पलामू में तैयार किया जाता है।

झारखण्ड में रेलवे लाइन:-  झारखण्ड से पार होने वाली प्रमुख रेलवे लाइन ग्रैंड कार्ड लाइन है। झरिया-धनबाद के कोयला-क्षेत्र में कई छोटी-छोटी लाइनें  इधर-उधर फैली हुई हैं ग्रैंड कार्ड लाइन के गोमोह स्टेशन के बरकाकाना लूप लाइन लातेहार, डालटेनगंज होती हुई सोन-ईस्ट बैंक से मिली है। इसकी लम्बाई 400 कि0 मीटर है। राँची से लोहरदगा तक एक छोटी लाइन है। कोलकाता से लाइन मुम्बई को जाती है। वह सिंहभूम जिले के चकुलिया स्टेशन के पास झारखण्ड में घुसती है और सरायकेला के पास झारखण्ड से बाहर चली जाती है। टाटानगर से एक लाइन दक्षिण की ओर बादाम पहाड़ को गयी है, जो आरम्भ में करीब 39 किलोमीटर झारखण्ड के अन्दर है। खरसावाँ से भी एक लाइन दक्षिण की ओर गुआ तक गयी है, जिसकी दूररी 100 किलोमीटर है। आसनसोल के दक्षिण-पश्चिम की ओर आनेवाली लाइन चंडिल होकर सीनी जंक्शन में मुम्बई जानेवाली लाइन में मिल गयी। चांउित से एक लाइन मुरी जंक्शन तथा राँची होती हुई राउरकेला तक चली गयी है। झारखण्ड में सड़के कम हैं, यहाँ सड़कों की दशा अच्छी है।

झारखण्ड में शिक्षा:-  शिक्षा के क्षेत्र में झाखण्ड पिछड़ा हुआ इलाका है, फिर भी बिहार की तुलना से काफी आगे है। धार्मिक सम्प्रदाय के हिसाब से ईसाइयों  में शिक्षा-प्रचार सबसे अधिक है। 5 वर्ष से अधिक उम्र वाले हजार ईसाइयों में 360 ईसाई पढे-लिखे स्त्री-पुरूष  भी बहुत हैं। आदिम जातियाँ में हजार में 260 आदमी पढे़-लिखे हैं। शिक्षा-प्रचार के लिये झारखण्ड में चार विश्वविद्यालय हैं। विश्वविद्यालयों से हर साल हजारों विद्यार्थी भिन्न-भिन्न परीक्षाओं में उत्तीर्ण होते हैं।

          झारखण्ड में उच्च, माध्यमिक और प्राइमरी विद्यालय की संख्या भी प्रर्याप्त है। इमें करीब-करीब आधे स्कूल ईसाई मिशनरियों द्वारा चलाये जाते हैं। मिशनरियों ने स्त्री-शिक्षा का बहुत प्रचार किया है, झारखण्ड में पढ़े-लिखे लोगों की मुख्य भाषा हिन्दी है। संथाल परगना में प्रायः 12 प्रतिशत लोग बंगला बोलते हैं, शुद्ध मगही हजारीबाग जिले के उत्तरी भाग और पलामू जिले के पूर्वी भाग में बोली जाती है। पूर्वी मगही हजारीबाग, राँची, धनबाद और सिंहभूम के कुद हिस्सों में बोली जाती है। राँची की पूर्वी मगही का एक रूप पंच-परगरियाँ है, जो सिल्ी, बरंडा, राहे, बुंडू और तामड़िया भी कहते हैं

         

झारखण्ड का नामकरण

झारखण्ड का वह क्षेत्र जो आज छोटानागपुर के नाम से जाना ता है, प्राचीन संस्कृत साहित्य, प्रारंभिक विदेशी यात्रियों के वर्णनों और मध्यकालीन फारसी इतिहास-ग्रंथों में विभिन्न नामों से चर्चित है। युनानी लेखक प्लिनी ने झारखण्ड कोपाटलिबोथ्रिस’ (पाटलिपुत्र) से सुदूर दक्षिण मेंमोनेडेसऔर सुआरी कहे जाने वाले लोग रहते थे। ये लोग संभवतः आधुनिक मुण्डा और प्राचीन शबर जाति के लोग ही थे। एक अन्य लेखक टालमो ने भी उपर्युक्त लोगों कामुडालाऔर सुन्नराईनाम से उल्लेख किया है। उसी तरह हृेनसंाग द्वारा लिखितकि-लो-ना-सु-फा-नाअथवाकर्णसुवर्णभी छोटानागपुर को अधित्यका को ही इंगित करता है। हृेनसंाग  से भी पहले फाहियान ने इस पहाड़ी इलाके का उल्लेखकुक्कुट-लाडके नाम से किया है।

वैदकि साहित्य में झारखण्ड का कोई उल्लेख नहीं है। किन्तु, महाभारत केदिग्विजय-पर्वमें इस क्षेत्र कापुंडरिकदेशके नाम से उल्लेख हुआ है। महाभारत कीपशुभूमिभी संभवतः झारखण्ड ही है, क्योंकिपशुभूमिइस प्रदेश का वह भाग था जिसका नामकरण जंगली जानवरों के बाहुल्य के कारण हुआ था। बौद्ध एवं जैन साहित्य में इस क्षेत्र का नाममात्र ही उल्लेख है। फिर भीइंडिया एण्ड जम्बू आइलैंडके लेखक अमरनाथ दास ने झारखण्ड का संबंध गौतम बुद्ध तथा महावीर से जोड़ने का प्रयास किया है। शरतचन्द्र राय का कहना है कि झारखण्ड के अनेक स्थानों के नाम के साथभूमप्रत्यय जुड़ा हुआ जान पड़ता है, जैसे मानभूम, सिंहभूम, धालभूम, भंजभूम तथा मल्लभूम इत्यादि। रसिक मंगल नामक ग्रंथ में छोटानागपुरनागभूमके नाम से गिनाया गया है।

 

मघ्यकाल में मुस्लिम इतिहासकारों ने सामान्यतः झारखण्ड का उल्लेख किया है। झारखण्ड नाम का प्रयोग शम्स--शिराज अफीफ, सुल्लिमुल्ल तथा गुलाम हुसैन ने अपने ग्रंथों में किया है।

यहाँ जंगल और झाड़ की अधिकता ने शायद इस का नाम झार/झाड़ (वन) और खण्ड (प्रदेश) इस प्रकार, झारखण्ड का शाटिदक अर्थ हैंः- वन प्रदेश। आज जिसे झारखण्ड के नाम से जाना जाता है। झारखण्ड में मुख्य रूप से छोटानागपुर पठार और संथाल परगना के वन-क्षेत्र शामिल हैं। आज का झारखण्ड पहले के छोटानागपुर-संथाल परगना का ही पर्यावाची हैं। अतएव इन दोनों क्षेत्रों के पुराने-नये नामों का परिचय आवश्यक हैं।

 

छोटानापगुर :- छोटानागपुर, झारखण्ड का सबसे बड़ा भाग है। ढीले-ढाले अर्थ में छोटानागपुर को झारखण्ड का सामानर्थीं कहा जा सकता हैं। सामान्यता छोटानागपुर कहने से झाखण्ड का तथा झारखण्ड कहने से छोटानागपुर पठार को कुक्कुट लाड कहा है। एक दूसरे चीनी यात्री ह्नेनसांग ने अपने यात्रा-वृतान्तसी-यू-कीमें छोटानागपुर पठार को किलों-ना-सु-का-ला-ना (अर्थात कर्ण सुवर्ण) कहा है। मध्य काल में राँची क्षेत्र कोकरा/खोखरा के नाम से जाना जाता था। यही क्षेत्र धीरे-धीरे चुटिया नागपुर, चुटा नागपुर या सामान्यतः छोटानापुर के नाम से जान जाने लगा जो अपेक्षाकुत बड़े क्षेत्र:- का परिचायक था। ब्रिटिश शासन काल के दौरान 1765 0 से 1833 0 तक इस क्षेत्र के लिए छोटानागपुर नाम प्रयुक्त होता रहा। 1834 0 में अंग्रेजों ने इसे दक्षिण-पश्चिमी सीमांत एजेन्सी (South-Western Frontier Agency-SWFA) नाम से एक प्रशासनिक ईकाई के रूप में गठित किया जिसका मुख्यालय विलिकिंसनगंज या विशुनपुर (बाद का राँची) को बनाया।

संथाल परगाना:-  संथाल परगना, झाखण्ड का दूसरा सबसे बड़ा भाग है। इस क्षेत्र का प्राचीनतम नाम नरी खण्ड हैं। बाद में इसे कांकगोल कहा जाने गला। ह्नेनसांग ने संथाल परगना के मुख्य क्षेत्र राजमहल का उल्लेख कि-चिंग-कोईलै के नाम  से किया है। राजमहल नामकरण मध्य काल में हुआ। संथाल परगना के एक महत्वपूर्ण भाग जिसमें राजमहल, पाकुड, गोड्डा और दुमका के कुछ हिस्से शामिल थे, को दामिन--कोह (अर्थात् पहाड़ी अंचल) कहा जाता था।

1.पाषाण काल

पाषाण काल (25,00,000 0पू0-1,0000पू0) को तीन युगों में बाँटा जाता है-पुरा/पूर्व (Paleo), मध्य (Meso) एवं नव (Neo) झारखण्ड में तीनों युगों के साक्ष्य मिलते हैं।

1.     पुरापाषाण युग (Paleolithic Age):- आखेटक खाद्य-संग्रहक झारखण्ड में पुरापाषाण युग के अवशेष दुमका, देवघर, हजारीबाग, बोकारो, राँची, पश्चिमी सिंहभूम, पूर्वी सिंहभूम आदि क्षेत्रों की नदियों के किनारे प्राप्त हुए हैं।

2.     मध्यपाषाण युग (Mesolithic Age):- आखेटक पशुपालक/सूक्ष्मपाषाणोपकरण (microlith) संस्कृति, झारखण्ड में मध्यपाषाण युग के अवशेष पलामू, दुमका, धनबाद राँची, पश्चिमी सिंहभूम, पूर्वी सिंहभूम आदि से प्राप्त हुए हैं।

3.     नवपाषाण युग (Neolithic Age):- खाद्य7उत्पादक, झारखण्ड में नवपाषाण युग के अवशेष राँची, लोहरदगा, पश्चिमी सिंहभूम, पूर्वी सिंहभूम आदि से प्राप्त हुए हैं।

 

झारखण्ड की जनजातीय संस्कृति भारतीय समाज की एक अमूल्य निधि है। सुदूर अतीत से इसकी अविरल धारा आजतक प्रवाहित होती आयी है। यह धारा कभी-कभी विस्मृति के गर्त में खोयी जान पड़ती है, किन्तु अद्यतन इसका विशाल प्रवाह बना हुआ है।

          प्रागौतिहासिक काल में झारखण्ड घनघोर महावनों के आछन्न था। वृक्षों की सघनता ऐसी थी कि धरती पर पाँच-छः मीटर से अधिक कुछ भी नहीं दिखाई देता था, उस समय यहाँ अन्य स्थानों की तरह ऐसे मानवों का निवास था जो  अर्द्ध-मानव थे। यह स्थिति आज से प्रायः बीस हजार वर्ष पूर्व की थी। झारखण्ड जंगलो-पहाड़ों से आच्छादित होते हुए भी बाह्य जगत से सर्वथा कटा हुआ कभी नहीं रहा। अनन्त काल से देश के अन्य भागों से इसका जातीय और सांस्कृतिक आदान-प्रदान होता रहा है। फिर भी, प्रबल भौगोलिक प्रभाव के कारण यह क्षेत्र भारत के अन्य भागों से ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक दृष्टिकोण से बुहत कुछ भिन्न रहा है। यहाँ एक विशिष्ट सभ्यात का प्रादुर्भाव एवं विकास हुआ जिसने बाह्य प्रभावों के बावजूद अपनी एकात्मकता को अक्षुण्ण बनाए रखा। विन्ध्य और कैमूर की श्रेणियों ने इसे उत्तर से होने वाले आक्रमणों से सदैव अभयदान दिया। गुप्त शासकों एवं बादस में शशांक को छोड़कर प्राचीन भारत के किसी राजवंश ने इस भाग पर अधिक समयस तक राज्य नहीं किया। तुर्क विजेता अपने तीन सौ वर्षों के शासनकाल में इस क्षेत्र को कभी भी आक्रांत कर सके। मुगल सम्राट भी कभी-कभी ही यहाँ प्रवेश कर सके। इन विशेष परिस्थितियों के कारण ही इस प्रदेश के इतिहास का तथा सांस्कृतिक प्रगति का, एक विशेष दिशा में झुकाव हुआ। इसके वनों और पर्वतों ने भारतीय आदिम निवासियों के समुदायों को शरण दी, जैसे मुण्डा, हो, उराँव, संताल, चेरो तथा खरवार आदि। द्राविड़ों और आर्यों द्वारा अधिक उपजाऊ प्रदेशों से निकाले जाने पर ये यहीं आकर बस गए। यहाँ की आदिम जातियों की संख्या दिन-प्रति दिन क्षीण होती जा रही है, परन्तु इनके रहन-सहन में एक ऐसी सभ्यता का परिचय मिलता है जो आर्यों के पहले से अब तक थोड़ा-बहुत परिवर्तनों के साथ ज्यों-की-त्यों रही है।

          पुरातत्त्ववेताओं ने खोज करके बतलाया है कि झारखण्ड की अधिकांश जनसंख्या प्रारंभ से ही स्थयी रही है। यहाँ के मुंडा भाषी लोगों एवं द्रविड़ों-उराँवों आदि में इतनी समानाता है कि इन्हें अलग-अलग देखना कठिन है। ये लोग भारत के विभिन्न क्षेत्रों में स्थानांतरित होते रहे और अंततः झारखण्ड में स्थायी रूप से बस गए।

                   जब सिंधु-घाटी में कांस्यकालीन संस्कृति का विकास हो रहा था, उसी समय झारखण्ड में नवषाषण संस्कृति विकसित हुई थी। यहाँ चिकने पॉलिश  किए गए पाषाण-शिल्प-उपकरण तथा कुठार प्राप्त हुए हैं। बुरहादी गाँव में 1870 में भी बॉल को पत्थर कासेल्टमिला था। बुरजू में एस0सी0 राय को स्लेटी पत्थर के पॉलिश की हुई छेनी मिली थी। सन् 1868 में कप्तान बिचींग को चाईबासा के निकट रोरो नदी के तट पर नव-पाषाण युग के उपकरण मिले थे जिनमें प्रस्तर-चाकुओं की प्रधानता थी। 1917 में इसी प्रकार की चीजें सी0 डब्ल्यु0 सेंडरसन को संयज नदी के तट पर मिली थीं। बुरूहातू में एस0सी0 राय ने स्लेट की पत्थर की एक छेनी तथा क्वार्ज पत्थर की पॉलिश की हुई छेनी पायी थी। दरगामा गाँव में एक ग्रामीण को 1915 0 में ताम्बा के 5 ’सेल्टमिले थे। श्री राय को भी यहाँ लोहा तथा ताम्बा की एक-एक आरी मिली थी। वोरमैन ने नव-पाषाणकालीन हस्तकुठारों को 12 प्रकार का पाया है। इनमें से अधिकांश प्रकार के हस्तकुठार झारखण्ड में पाये गये है। गोल हस्ताकुठार और दूसरे शिल्प-उपकरण संकेत देते है कि इस क्षेत्र में नवपाषाणकालीन संास्कृतिक प्रभाव दो बार क्रम से आय होगा। संभवतः पहला सांस्कृतिक अतिक्रमण 1500 0पू0 के लगभग और दूसरा इससे भी पहले होगा। इसी युग में आस्टेलाॅयड अर्थातृ मुख्य रूप से मुंडा-भाषी जनजातियाँ झारखण्ड में आयी होंगी। आर्यों के आगमन के बाद द्राविड़, उराँव आदि जातियाँ उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों से स्थानांतरित होकर झारखण्ड आदि क्षेत्रों में पहूँची और वहाँ की प्रोटो-आस्ट्रेलाॅयड जनसंख्या को काफी हद तक प्रभावित किया। खरिया बिरहोर तथा असुर झारखण्ड की प्राचीनतम जनजातियाँ हैं। मुुंडा-उराँव, हो जनजातियाँ बाद की और कोरवा प्राचीनतम एवं बाद की जनजातियों के बीच की हैं। चेरो, खरवार भूमिज तथा संताल आदि और भी परवर्तीकाल की हैं।

 

 

नवपाषाण युग के बाद झाखण्ड

          नव पाषाण युग या नियोलिथिक युग झाखण्ड में पाषाण युग के बाद धातु युग आया। इन दोनों के बीच के संक्रमण-काल को ताम्र-पाषाण युग (Chalco-Iithic-Age) कहा जाता हैं जिसमें पाषाण (पत्थर) के साथ-साथ ताम्र/तांबा (धातु) के उपकरणों युग के बाद ताम्र/तांबा युग आया जिसमें सभी उपकरण, औजार ताम्र/तांबा से बनने लगे। उस समय की असुर, बिरजिया, बिरहोर जरनजातियाँ तांबे के खानों से अयस्क निकाल कर उसे गलाने और उससे उपकरण बनाने की विद्या से परिचित थे। प्रागैतिहासिक काल में झारखण्ड घनघोर महावनों से आछन्न था वृक्षों की सघनता ऐसी थी कुछ भी दिखाई नहीं देता था।  झारखण्ड के कई स्थलों से तांबे की कुल्हाड़ियों के मिलने तथा हजारीबाग के बाहरगंडा स्थान से तांबे की 49 खानों के अवशेष मिलने से इस बात की पुष्टि होती है। झाखण्ड में ताम्र युग के बाद कास्य युग आया। कास्य/कांसा का निर्माण तांबा में टीन मिलाकर किया जाता था। छोटानापुर क्षेत्र के असुर और बिरजिया जनजाति इस युग के सूत्रधार थे। झारखण्ड में कांस्य युग के बाद लौह युग आया। लौह युग के सूत्रधार भी असुर और बिरजिया जनजाति ही थे। छोटानापुर के असुर बिरजिया जनजातियों ने उत्कृष्ट लौह तकनीक का विकास किया। एक इतिहासविद् के अनुसार छोटानागपुर का लोहा सुदूर मेसोपोटामिया (आज का इराक) तक भेजा जाता था, जहाँ दमिश्क में इससे तलवारें बनायी जाती थीं। दमिश्क की तलवारें इतिहास-प्रसिद्ध हैं। इससे झारखण्ड के वैदशिक संपर्क की पुष्टि  होती हैं।

झारखण्ड में जनजातियों का प्रवेश

आज से प्रायः बीस हजार वर्ष पूर्व की झारखण्ड जंगलो-पहाड़ों से आच्छादित होते हुए भी बाह्य जगत से सर्वथा कटा हुआ कभी नहीं था, यहाँ जातीय और सांस्कृतिक आदान-प्रदान होता रहा है।, फिर भी प्रबल भोगोलिक प्रभाव प्रभाव के कारण यह क्षेत्र भारत  के अन्य भागों ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक दृष्टिकोण से बहुत भिन्न रहा है। इसके वनों और पर्वतों ने भारतीय आदिम निवासियों के समुदायों को शरण दी, जैसे मुण्डा, हो, उराँाव, संथाल, चेरो तथा खरवार आदि। द्राविड़ो और आर्यों द्वारा अधिक उपजाऊ प्रदेशों से निकाले जाने पर ये यहीं आकार बस गए। यहाँ उत्तरपाषाण युग के अनेक अवशेष पाए गए हैं। पुरातत्त्ववेत्तओं ने खोज करके बतालाया है कि झारखण्ड की अधिकांश जनसंख्या प्रांरभ से ही स्थायी रही है। यहाँ के मुंडा भाषी लोगों एवं द्रविड़ों-उराँवों आदि में इतनी समानता है कि इन्हें अलग-अलग देखना कठिन है।

झारखण्ड की प्राचीनतम जनजातियों में एक खरिया भी है। वे अभी सिंहभूम तथा मानभूम में बहुत कम संख्या में बच रहे हैं। छोटानागपुर खास में उनको अपनी बस्तियाँ हैं। उनकी सर्वश्रेष्ठ स्थिति दक्षिण कोयल नदी के निकट की बस्तियों में हैं। प्राचीनकाल में ये रोहतास से लेकर  पाटलिपुत्र तक फैले हुए थे। वहाँ से निकाले जाने पर वे दक्षिण कोयल क्षेत्र में चले आये।

बिरहोर भी संभवतः कैमुर की पहाड़ियों से होते हुए ही छोटानागपुर में प्रविष्ट हुए थे। वे बिरिजिया तथा असुरों की तरह ही छोटानागपुर में प्रविष्ट होने वाली प्रारंभिक जनजातियों में एक थे। स्वयं असुर नव-पाषाणकाल से लेकर लोह युग तक छोटानागपुर में फलते-फूलते रहे।

मुण्डा तथा उराँव निःसंदेह प्राचीन छोटानापुर से लेकर आज तक इस क्षेत्र की प्रमुख जनजातियाँ हैं। मुण्डाओं के छोटानागपुर में प्रवेश का काल तथा मार्ग दोनों ही अभी तक अनिश्चित हैं। बी0सी0 मजुमदार के अनुसार इन्होनंे पूर्ववर्ती जनजातियों को पूर्व-दक्षिण की ओर धकेल कर छोटानागपुर खास पर कब्जा कर लिया था। किन्तु अन्य लेखक इसे स्वीकार नहीं करते। ऐसा प्रतीत होता है कि छोटानागपुर की असुर सभ्यता को नष्ट करनेवाले मुण्डा ही थे।  स्वयं मुंडाओं की परम्परा के अनुसार ये लोग आज के मध्य भारत और उत्तर प्रदेश क्षेत्र से तब भाग खेड़े हए जब वहाँ आर्यों का आगमन हुआ। आर्यों के विस्तार के बाद उन्हें वहाँ से भी हटकर पहले रोहतास क्षेत्र बाद में छोटानागपुर आना पड़ा।

द्राविड़, उराँव, मुंडाओं के बाद, छोटानागपुर की कई प्रमुख जनजातियाँ हैं। उनका संबंध दक्षिण भारत तथा पूरब के द्वीपों की जातियों से है। दक्षिण भारत से चलकर उत्तर-पश्चिम होते हुए ये रोहतास क्षेत्र में पहँुच थे। वहाँ वे चेरो-खरवारों द्वारा भगाये जाने पर ये छोटानागपुर में प्रविष्ट हए और मुख्यतः छोटानागपुर खास तथा पलामू क्षेत्र में बस गये।

उराँव की मूल-भूमि जहाँ भी रही हो इस बात पर कोई संदेह नहीं कि उनकी जाति घुकक्क्ड़ थी औरर अनेक स्थानों से होते हुए ये छोटानागपुर पहुँचे थे। यह बहंत संभव है कि वे मुलतः दक्षिण भारत के ही निवासी होगें क्योंकि भाषा ने कुरूख और कन्नड़ तथा तमिल के अनेक शब्दों में एकरूपता पायी गई है। यह भी कहा गया है कि मुण्डा और उराँव एक ही समय में उत्तरी-पश्चिमी भारत से चले होगें। यह घटना आर्यों के आने से पहले की थी।

झारखण्ड के जिस भाग को आजकल धनबाद के नाम से जाना जाता है, बौद्ध-धर्म का एक महत्त्वपूर्ण स्थान था। टी0 ब्लाश (आरकेयोलोजकल सर्वें आॅफ इंडिया रिपोर्ट, बंगाल सर्कल, 1903) ने यहाँ पाँच-सात किलोमीटर क्षेत्र में बौद्ध अवशेष देखे थे। पुरूलिया (अब बंगाल में) से 40 कि0मी0 दक्षिण-पूर्व में पाकबीरा है। 1865 0 में आर0सी0 बोकन ने वहाँ बौद्ध खण्डहर देखे थे। पाकबीरा और बाहमसिया गाँवों के बीच लाथेनटोंगरी नामक पहाड़ी है। यहाँ बेगलर ने कई चैत्यों के अवशेष देखे थे।

शुरू से झाड़-जंगलों पहाड़ों से भरा-पूरा क्षेत्र रहा है इसीलिए यह जनजातियों (आदिवासियों) की प्रियस्थली बन सकी। झारखण्ड में जनजातियों का प्रवेश-भिन्न समयों में हुआ। शाक्तिशाली प्रजातीय समूहों (जैसे आर्य) द्वारा अपने मूल स्थान से धकेले जाने पर ये झारखण्ड में पहुँचे और यहीं भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में स्थायी रूप से बस गये। असुर, बिरजिया, बिरहोर एवं खड़िया झारखण्ड की प्राचीनतम जनजातियाँ हैं और इनमें भी असुर सबसे प्राचीन जनजाति है। इसके बाद कोरबा जनजाति का झारखण्ड में आगमन हुआ। मुण्डा, उराँव, हो जनजातियाँ बाद की हैं। 1,000 0पू0 तक चेरों, खेरवारों संथालों को छोड़कर झारखण्ड में उपलब्ध पलामू में तथा संथाल हजारीबाग में आकर  बसे जबकि ब्रिटिश काल में संथाल, संथाल परगना में आकर बसे।

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