भारत में मुगलों के शासन के प्रारम्भ काल में झारखण्ड में कई छोटे-मोटे हिन्दू और अर्द्ध-हिन्दू शासको के राज्य थे। उनमें पालमू के रक्सेल, कोकरह के नामवंशी तथा सिंहभूम के सिंह-वंश प्रमुख थे यह सम्पूर्ण पर्वतीय-क्षेत्र मुसलमानों को झाारखण्ड के नाम से ज्ञात थां। मुगलकाल में झारखण्ड पार होनेवाली कोई स्थायी सड़क नहीं थी। तुर्क-अफगान काल में उसकी सीमाओं पर अनेक जागीरदारों अथवा सैन्य-संचालकों को तैनात किया गया था। उसका उद्देश था दिल्ली सल्तनत के प्रदेशों को झारखण्ड की जनजातियेां के आक्रमण से बचाना। बड़ी कठिनाई से दो-तीन बार मुस्लिम फौल उत्तरी-पूर्वी झारखण्ड होकर गुजरी थी। शेर खाँ बंगाल जाते हुए झारखण्ड से पार हुआ था। जब वह स्वयं झारखण्ड पार कर रहा था, उसका पुत्र जलाल खाँ तेलियागढ़ी की नाकाबंदी करने लगा था। शेर खाँ बंगाल के शासक से लूटी गई सम्पदा के साथ राजमहल के पास गंगा पार कर गया और मुगलों को चकमा देता हुआ झारखण्ड के रास्ते रोहरासगढ़ पहुँच गया। उसके सही मार्ग का उल्लेख इतिहास इतिहास-ग्रंथों में उपलब्ध नहीं है, लेकिन लगता है कि उसने गया-नवादा, खरगडीहा-देवगन मार्ग का अनुसरण किया होगा। झारखण्ड में मुसलमानों का प्रवेश केवल शत्रुओं का पीछा करते हुआ अथावा बंगाल-उड़ीसा जाते अथवा वहाँ से लौटते समय। ऐसे सभी अवसरों पर झारखण्ड के ह्नद्य-प्रदेश कोकरह तथा पलामू प्रायः अछूते रहे। उदाहरणार्थ, खानदेश के शासक आदिलशाह द्वितीय ने अपने सैन्य-दल को झारखण्ड तक भेजा और इसीलिए वह ‘झारखण्डी सुल्तान’ के नाम से विख्यात हुआ। बारब और हुमायूँ के शासन-काल में झारखण्ड मुगल-विरोधी अफगानों का आश्रम-स्थल बन गया। स्वयं शेरशाह ने मुगलों के विरूद्ध अपने संघर्ष में इस क्षेत्र का कई बार उपयोग किया। मुगल काल में झारखण्ड में छोटे-बड़े राज्यों की संख्या में और वृ़िद्ध हुई। सबसे बड़ा परिवर्तन यह हुआ कि रक्सेलों को पराजित कर चेरो ने पलामू में नए राजवंश की स्थापना कर ली। फिर भी झाारखण्ड मुस्लिम अतिक्रमण से बचा हुआ था। अंततः इसमें मुसलमानों के प्रवेश का मार्ग शेर खां ने प्रशस्त किया। शेरशाह का रोहतासगढ़ पर अधिकार 1538 ई0 में हो चुका था। किन्तु जब वह किसी सैन्य अभियान में रहता अथवा विपत्तिा में फंसा रहा था तो चेरो लोग झारखण्ड के जंगलों से निकलर किसानों को परेशान करते और बंगाल के मार्ग पर यात्रियों के साथ लूट-पाट करते , कभी-कभी तो शेरशाह के सैनिकों के शिविरों को भी लूट लिया करते थे। इसलिए शेरशाह को इनका दमन करना अत्यावश्यक हो गया था। शोरशाह का मुगलों से संघर्ष के समय में यह क्षेत्र उसका आश्रय स्थल भी था। इस बात को शेरशाह भली-भांति समझता था। झारखण्ड में मुसलमानों के प्रवेश का मार्ग प्रशस्त करने वाला शेरशाह ही था। 1538 ई0 में शेरशाह ने अपने सेनापति खवास खाँ को झारखण्ड के पलामू क्षेत्र के चेरो शासक महारथ चेरो पर आक्रमण कर उसका दमन करने के लिए भेजा। महारथ चेरो अपने सहयोगियों के साथ लूट-पाट किया करता था। महारथ चेरो की लूट-पाट के कारण यात्रियों के बंगाल आना-जाना मुश्किल हो गया था। शेर खाँ के सेनापति खवास खाँ 4,000 घुड़सवारों के साथ रोहतास से रवाना हुआ, सोन नदी पर किया और एक अत्यंत दुर्गम घाटी से गुजरता हुआ अंततः खवास खाँ और दरिया खाँ ने महारथ चेरो को चारो और घेर लिया तथा उसे आत्मसमर्पण करने के लिए मजबुर किया। बाबर ने दिल्ली सल्तनत के अंतिम सुल्तान इब्राहिम लोदी को पानीपत के प्रथम युद्ध (1526 ई0) में कराकर मुगल वंश की स्थापना की। 1540 ई0 से 1555 ई0 तक यह शासक सूर वंश (शेरशाह व उनके वंशज) के हाथों में चला गया। हुमायँू ने 1556 ई0 में मुगल वंश को पुनस्थापित किया। इसके बात मुगलवंशियों ने 1857 ई0 तक शासन किया। यह बात अलग है कि औरंगजेब के मरणोपरांत (1707 ई0) मुगल बादशाहों की वह धाक नहीं रही और वे नाममात्र के बादशाह रह गए। अंततः अंग्रजों ने 1857 के महाविद्रोह के समय अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह प्प् ’जफर’ को अपदस्थ कर रंगून (बर्मा) निर्वासित कर मुगल वंश का शासन समाप्त कर दिया।
मंगलवार, 3 मई 2022
Mugalkalin Jharkhand (मुगलकालीन झारखण्ड)
BGN ACADEMY मंगलवार, 3 मई 2022
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